जुआ मीनारे,
एक मर-ले में हों या दस-ग्यारह में
आखिर हैं तो मर-ले, मार-ले ही!
चैन-सुकून कहाँ है ऐसी इमारतों में?
रहने वालों से ज्यादा हाहाकार है
उनके बनाने-बिगाड़ने वालों में!
जुआ मीनारों के ढेर पे खड़े लाक्ष्यागृह
मरते-मरते भी सौंप जाते हैं दस्तावेज
अपने सालों-साल चले, जुए की गवाही के
कैसे-कैसे मुकदमों की राजनितिक घढंत के!
और कुर्शियों पे विराजमान ताने-बानों के!
जुआ मीनारें, कैसे-कैसे अँधेरे-उजालों की
कैसे-कैसे घड़े गए व्यक्तित्वों के रूपों की
जिनमें आप सब होते हैं, खुद को छोड़कर
इस जुए का काम ही है खुदारी को मारना
यहाँ असलियत पर परतें लिपि-पोती जाती हैं!
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