तुम ज़िंदा हो अगर
गुट और गटर की
राजनीति से बाहर हो
तुम ज़िंदा हो जो सालों दर साल
खुद को नोचते-खाते हुए खेल को
आख़िरकार समझ पा रहे हो
कुर्शियों के पीपाशु
माया चकर्वयुह को
भेद पा रहे हो
झूठी शानो-शौकत
झूठे कर्मकांडियों के
व्यभिचार को देख पा रहे हो
जंग खुले सांड़ों से
और हंस रहे हो तुम?
तो ज़िंदा हो तुम!
तुम ज़िंदा हो
अगर राजे-महाराज़ों को भी
कटघरे में खड़ा करने लायक हो
मूह में राम-राम
बगल में छुरी
खंडके नासूरों के सिर पे
खुजराहों के व्यापारियों के
काम-काज को, राज को
पहचान पा रहे हो
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