समझ से परे ये रस्ते
समझ से परे ये दुनिया
कहें इन्साफ है ये
मुझे लगा
अगर ये इन्साफ है
तो दुर्वय्वहार क्या है?
जुबान पे गाली होना ही तो
दुर्वय्वव्हार नहीं
मार-पिट, छल-कपट ही तो
दुर्वय्वव्हार नहीं
जुआ खेलना और करना शिकार
जानवरों का नहीं, इंसानों का
इससे बड़ा और क्या होगा दुर्वय्वहार?
ज़िंदा इंसानों को बनाके दांव
बिना उनकी इजाज़त के
बिना उनकी मर्जी के
उनको बताये समझाये बिना
बना देना मोहरे यूँ अपनी ही मर्जी से
इससे बड़ा और क्या होगा दुर्वय्वहार?
चला देना यूँ फाइल्स दावों-प्रतिदावों की
ऐतराज़ के बावजूद!
बिठा के यूँ चालों से लाक्षागृहों में
और कहना
चल शर्तों पे हमारी वरना!
इस चक्रव्यूह से निकल के दिखा!
इससे बड़ा और दुर्वय्वहार क्या होगा ?
अगर यही इन्साफ है
और ऐसे ही हैं जज और कोर्ट्स
तो धिक्कार है ऐसे विकृत, खोखले
दरबारों पे, समाजों पे, सत्ताओं पे
मेरे पैरों के नीचे रगड़ी पड़ी हैं
तुम्हारी जुआरी और शिकारी शर्ते
जाओ सजा लो उन्हें अपनी फाइल्स में!
जुए से दूर एक दुनिया सजाने चली हूँ
ऐसी बेहूदा भीड़ से दूर, बहुत दूर!
जुआरियों से, शिकारियों से
बेहूदा, विकृत, खोखले ताने-बाने से बहुत दूर!
है कहीं दुनिया ऐसी?
हो तो बताना, उसे ही ढूंढ़ने चली हूँ
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